बुधवार, 7 दिसंबर 2016

विद्यार्थी जीवन और महान बचपन

Posted by बेनामी
आज यदि कोई विद्यार्थी चाहता है कि वह बिना डर-भय और किसी चीज़ की परवाह किए अपने जीवन में आगे बढ़े, अपने कार्यों को पूरा करे और अपने लक्ष्य की प्राप्ति करे - तो इसके लिए जरूरी है सही सोच और प्रेरणादायक भावना से जुड़े रहना। इसलिए हमें एक बार पीछे मुड़कर अपने बचपन के दिनों को याद करना ठीक रहेगा। अवश्य यह हर किसी के लिए थोड़ा मुश्किल होगा कि हम अपने बचपन के दिनों को याद रख सकें। तो इस बात का सही सबूत पाने के लिए कि हमारा बचपन कैसा रहा होगा तो आप उस नन्हे बालक को देखिये जो घुटनों के बल घर के आंगन में चक्कर लगाता है,और बहुत बार दिवार या किसी वस्तु का सहारा लेकर खड़ा होने की भी कोशिश करता है। शायद यही दिन प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आये होंगे,और वहीं से हमने अपने पैरों पर खड़े होना सीखा होगा। तो क्या आप जानते हैं कि वह बचपन हमारा महान जीवन था। जी हाँ, 'अब हमारे दिमाग में यह बात आ चुकी होगी कि यहाँ बचपन के क्रिया - कलापों शारीरिक गतिविधियों की बात करने की बजाय हमारी अन्दरुनी मानसिकता और एक जबरदस्त भावना को समक्ष चित्रित करने की कोशिश की गई है। अब आप ऊपरी बातों का खुला स्पष्टीकरण समझने की कोशिश कीजिए - शायद आप इस बात से पूर्ण सहमत होंगे कि अवश्य हमने धीरे -धीरे अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा। लेकिन यह सब सीखते वक्त न जाने हम कितनी बार जमीन पर गिरे , लेकिन दम तो इस बात में है कि हमने गिर जाने के बाद भी खड़ा होकर चलने का प्रयास जारी रखा और वह भी एक - दो बार नहीं सैंकड़ो बार गिर जाने के बाद भी प्रयासरत रहे , और एक दिन ऐसा भी आया कि हमअपने काम में सफल भी हुए। अर्थात् अब हम पैरों पर खड़ा होकर चलना सीख गए थे। अवश्य इस सफलता का राज यह तो था ही कि हमने बार - बार कोशिश की परन्तु इसके पीछे एक बड़ा राज यह भी छिपा था कि हमने बार - बार गिर जाने के बाद भी किसी की परवाह नहीं की - आत्मविश्वास नहीं खोया। धैर्य के साथ बार - बार गिरने को भुलाकर अपने कर्म से जुड़े रहे तो जरा सोचिए यदि हम उस वक्त इस बात की परवाह करते कि हमारे गिरने पर कोई हँसेगा , और नकारात्मक भावना के साथ हम निराश और उदास बैठ जाते तो आज कैसे संभव था पैरों पर खड़े होकर चलना । जरूर हमने बचपन में अपने लिए जोखिम लेने में बिल्कुल भी चूक नहीं की यहां तक कि हमने अपने छोटे कद और नन्हे - नन्हे हाथों से छोटे बड़े कार्यों को करना चाहा जो कार्य बड़ी उम्र के लोगों के लिए हल्के फुल्के थे । लेकिनउस उम्र में हमारे लिए वे कार्य हमारी जिन्दगी की नींव और इरादों को मजबूत करने वाले रहे - इस बात की सहमती चाहते हो तो आप एक। बच्चे की उन हरकतों को देखिए जब बच्चा घर के बड़े सदस्यों को कार्य करता देख स्वयं भी उस कार्य को करने की कोशिश करता है। या फिर जब कोई व्यक्ति बाईक या गाड़ी चलाता है तो। उसे। देखकर वह छोटा बच्चा भी उस बाईक पर बैठने का प्रयास करता है और जब बच्चे को गाड़ी पर बैठा दिया जाता है तो वह लपक कर हैंडिल पकड़ने की। कोशिश करता है, मानो वह स्वयं गाड़ी चला रहा हो। ऐसे ही प्रयासों में जब बच्चा किसी स्थान पर पड़े दूध या पानी से भरे बर्तनों को उठाने की कोशिश करता है, लेकिन वह बर्तन यदि उसके हाथों से उठा पाने की बजाय गिर भी जाता है तो भी वह नन्हे हाथों से ताली बजाकर हंसता है खिलखिलाता है। क्यों कि वह अपने किये गए प्रयासों में सफल रहा है वह नहीं जानता कि गलत क्या है, अर्थात् बच्चे के मन में नकारात्मक भाव या विचार नहीं है। बच्चे के मन में हर क्षण कुछ ना कुछ करने और सीखने की चाह बनी रहती है और वह भी बिना किसी डर भय के, यही उसकी सफलता का राज है। ये बातें प्रत्येक व्यक्ति के बचपन में हुई और उनमें हम सफल भी हुए। । परन्तु सोचने वाली बात तो यह है कि फिर आज ऐसा क्या हुआ कि हम बढ़ती उम्र के साथ किसी भी कार्य को करने या जोखिम लेने से डरते हैं। अपने लक्ष्य को पाने की बजाय निराश होकर बैठ जाते हैं, हमें क्यों ऐसा लगता है कि हम असफल हो जायेंगे। हम मन में ऐसे विचार लेकर बैठ जाते है जो बिल्कुल नकारात्मक और हमारी जिन्दगी को स्थिर कर देने वाले होते हैं। लेकिन हमारी सबसे बड़ी भूल यह होती है कि कोई भी व्यक्ति इन सब नकारात्मक कारणों और असफलता की वजह भी जानने की कोशिश नहीं करता है। । लेकिन अब आपको यह विश्वास अपने मन में लाना होगा कि इन कारणों के पीछे कोई बड़ी वजह नहीं बल्कि मामूली सी कमजोरी रही है - वो यह कि हमने अपनी उम्र के साथ सोच को विकसित नहीं होने दिया और अपने विचारों को खुला नहीं होने दिया। और इसके विपरीत हमने अपनी बढती उम्र और शरीर को महत्व दिया। बस इसी वजह से हमारा बचपन से बढ़ता आत्मविश्वास जोश वहीं स्थिर रह गया। बड़ी सोच की बजाय सोचने की क्षमता घिसती गई, अब हम उन लोगों की परवाह करने लगे जो हमारे लक्ष्य को पाने में बाधा साबित हो रहे थे, हमें लोगों द्वारा अपनी असफलता पर मखौल उड़ाये जाने का डर सताने लगा। इतना ही नहीं अब तो हमें लक्ष्य पाने में आने वाली बाधाओं का डर, और कार्य शुरू करने से पूर्व नकारात्मक नतीजे मिल जाने जैसी गलत सोच ने हमें मूंह के बल गिरा दिया। यकीन करें:- । 'हम बच्चे थे, बच्चे हैं, बच्चे ही रहेंगे ' तो हर रोज़ अच्छा और कुछ बड़ा सीखेंगे। अब आप इस बात को सरल शब्दों में समझने की कोशिश करें -इस बात का यह मतलब नहीं कि हम उम्र भर बच्चों जैसी हरकतें करें -नहीं इसके बिल्कुल विपरीत कि हम अपनी सोच और भावना वैसी बनाए,जैसे प्रत्येक बच्चा हर क्षण कुछ न कुछ नया सीखने की इच्छा रखता है। उसके लिए कोई भी काम बड़ा- छोटा नहीं है, वह प्रत्येक कार्य यह सोच कर करता है कि यह करना"संभव"है। लेकिन इंसान बढ़ती उम्र के साथ अपने जीवन को उन्नति देने की बजाय यह सोच कर स्थिर कर लेता है कि वह तो बड़ा हो रहा है, अब उसे किसी से कुछ समझने की जरूरत नहीं है अर्थात् इंसान यह सोच बैठता है कि वह अब बड़ा हो गया है और नई बातें सीखना समझना तो सिर्फ बच्चों का काम है।- लेकिन यदि हमें उम्र भर अच्छा और बड़ी सोच वाला बनना है तो हमें स्वयं को बच्चे जैसा बनना पड़ेगा । इस बात की स्पष्टता के लिए आप गौर करें कि वर्तमान में हम अपने माता पिता भाई बहिन से कितने छोटे हैं। अर्थात् आज भी हम अपने माता -पिता भाई-बहिन से उतने ही छोटे हैं जितने जन्म के समय अर्थात् हम आज भी बच्चे ही हैं।

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