गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

विद्यार्थी जीवन में पारिवारिक संस्कार और कर्तव्य

Posted by बेनामी

सदियों से यही कहने और सुनने की धारणा है कि बच्चे का परिवार ही उसकी पहली पाठशाला है। शायद इसलिए कि बच्चा उठना -बैठना खाना -पीना और रहन - सहन घर में रहकर ही सीखता है और इन सभी बातों को सीखने के लिए परिवार के बड़े बुजुर्गों एवं माता -पिता द्वारा प्रेरित किया जाता है , लेकिन सवाल तो यह पैदा होता है कि माता -पिता ने हमें इन सब बातों के अलावा जीने का ढ़ंग और कर्तव्यों के बारे में सिखाया ? इस सवाल का जवाब पक्का हां तो नहीं लेकिन यह जरूर कह सकते हैं कि हाँ अवश्य कोशिश की होगी और वे थे -"संस्कार" । जी हाँ"संस्कार" शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में सकारात्मक की बजाय नकारात्मक विचार अधिक तीव्र गति से दौड़ने लगते हैं - वो इसलिए क्योंकि हम सोचते हैं कि संस्कारों में रहकर हम स्वतंत्र जीवन नहीं जी सकते और हमें अपने से बड़ो का गुलाम बनना पड़ता है। लेकिन यह सब सोचना बिल्कुल गलत है,क्यों कि संस्कार कभी भी हमें अपना या बड़ो का गुलाम नहीं बनाते,बल्कि संस्कार तो हमारे स्वभाव को सुन्दर रूप देते हैं,और जीवन के सही एवं सच्चे रस्तों का निर्माण करते हैं। आज हम आधुनिकता के दौर में अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं आज हमें यह बात बहुत मामूली रूप में पता है कि समाज में और समाज के लिए हमारा क्या महत्व है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी अच्छाइयों और बुराइयों की ओर ध्यान न देकर केवल अपने ऊपरी हाव भाव , वस्त्रों और शरीर को अधिक महत्व देने में जुटा है। लेकिन आप इन बातों को गलत समझने की बजाय इनको सकारात्मक रूप में ले अर्थात् इनका यह मतलब कत्ई नहीं कि हम और जमाने के साथ चलना छोड़ दें। नहीं क्योंकि आपने यह बात भी सुनी होगी कि प्रकृति उसी चीज़ को स्वीकार करती है जो समय के साथ चलती है और अपने अन्दर बदलाव लाती है। वे बदलाव जो अच्छे और हौंसलों से भरे हो । लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि उस जीने में कितना मजा है जहाँ हम अपनी ऊपरी सुन्दरता,बदलावों के साथ -साथ अपनी अन्दरुनी अच्छाइयों एवं संस्कारों की ओर भी ध्यान दें और उन्हें भी सुन्दर रूप देते रहें अर्थात् -- । "संस्कार वही --सोच नई" यदि हम अपने ऊपरी बदलावों के साथ -साथ संस्कारों में रहना सीख लें तो जीवन को आसानी से महानता की ओर ले जा सकते हैं, और ऐसे में हमारे जीवन में दूसरों के प्रति इज्जत और प्रेम स्वतः ही बढ़ने लगेगा। अब बात यहां खत्म नहीं बल्कि शुरू होती है कि क्या हो जाता है हम अपनों के दिखाये रस्ते पर चल नहीं पाते, अपने संस्कारों कर्तव्यों को भूल जाते हैं,और दूसरों को इज्जत देने की बजाय उनसे बूरा व्यवहार करते हैं। जिससे समाज के लोग भी हमें बूरा मानने लगते हैं । परन्तु अब सवाल यह पैदा होता है कि इन सब बातों के जिम्मेवार कौन है? कि हमें संस्कार सिखाने के बाद भी हम उन्हें बढ़ती उम्र के साथ भूल जाते हैं। तो कम शब्दों में इसका जवाब यही है कि इसका जिम्मेवार हमारे परिवार का "माहौल" है वह माहौल जो परिवार के सदस्यों का एक -दूसरे के प्रति व्यवहार से बनता है । प्रत्येक मां-बाप और बड़े-बुजुर्ग यही चाहते हैं कि उनका बच्चा संस्कारी बने तो ऐसे में वे अपने बच्चों को संस्कार सिखाते भी हैं। लेकिन फिर भी परिवार के सदस्य जाने -अनजाने में कोई भूल कर बैठते हैं:- सोचिये -ऐसे माहौल में कोई बच्चा कैसे संस्कारी बन सकता है -: •जहां परिवार में छोटी -छोटी बातों पर झगड़ा होता है •जहां परिवार के लोग नशे के आदी हों। •जहाँ लड़के-लड़की में भेदभाव किया जाता हो •जहां परिवार में इन्सान की तुलना ऊंची -नीची जाती से की जाती हो। •जहां बड़े परिवार के बच्चों से नफरत करते हो। अब इन सब बातों का जो नतीजा निकलेगा उसे एक मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है, कि ऐसे माहौल में रहने वाला बच्चा संस्कार सिखाने के बाद भी अपने अन्दर की कमजोरियों/बुराइयों को नहीं भूल पायेगा। ऐसे माहौल में बच्चे के विकास के साथ उसमें बुराइयां भी बढ़ती चली जायेगी। जिससे वह समाज में घटिया किस्म का इन्सान बनकर रहने लगेगा। जिससे उसके व्यवहार का भद्दापन स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगेगा और उसका व्यवहार भेदभावपूर्ण और क्रूरता वाला बनने में भी समय नहीं लगेगा। लेकिन माता पिता से संस्कार सीखने के साथ -साथ हमारी भी यह जिम्मेदारी बनती है कि हम स्वयं को बदलने की कोशिश करें चाहे हमारे परिवार का माहौल अच्छा -बूरा कैसा भी हो। हमें बुराइयों की ओर ध्यान देने की बजाय अपनी अच्छाइयों को ऊपर उठाना होगा। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि इंसान अपनी बचपन की उम्र में जो संस्कार या अच्छाइयाँ सीख पाता है, उसे वह थोड़ा बड़ा होने के बाद नहीं सीख पाता । तो यह उनकी गलत फहमी है। यदि हम चाहते हैं कि हमें समाज में अच्छा व्यक्ति बनकर जीना है तो उसकी कोई उम्र नहीं बस हमें अपने मन में यह दृढ़ निश्चय करना जरूरी है कि हमें बदलना है। बस यह दृढ़ निश्चय और अच्छी सोच ही हमें अच्छे रस्ते पर लायेगी और हमारा साथ स्वतः ही सच्चे और ईमानदार लोगों से होगा। तो चलिये :- "हमें वो नहीं बनना जिसने समाज की बुराइयों को सीखा हो,बल्कि हमें तो वो बनना है जिसने समाज की बुराइयों से चिढ़कर अच्छा बनने की प्रेरणा ली हो।"

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